Lawpanch Poem 1.1
 
 
वो चल रही थी
वो चल रही थी
रफ़्तार उसकी बढ़ रही थी
वो हाँफ रही थी
घर का रस्ता नाप रही थी
वो दौड़ रही थी
एक आहट सी थी कदमों की
क़ानों में उसकी गूँज रही
दुपट्टा संभाले
मोबाइल निकाले
वो अपने पिता का नंबर थी ढूंढ रही
सहम गई जब हाथ एक
कंधे पर आया था
 
 
मूड़ी तो देखा उसने वो तो उसका पिता
उसका ही साया था
साँस ली उसने चैन की
और अपने बाबा को गले से लगाया था
पगली वो जान न सकी
उसने ख़तरा गले लगाया था
घर पहुँची जो मकान सा था
अपने बाबा के लिए पानी लाई
Poem Lawpanch 1.5
Poem Lawpanch 1.4

 

 

बेहद अजीब था
उसने उनकी नज़रें कहीं और ही पाई
फिर हुआ वहीं जो उसने कभी ना सोचा था
वो तो घर के बाहर के भेड़ियों से बचती फिरती थी
उसे कहाँ पता था भेड़िया घर के अंदर बसता था
 
 
चीखें उसकी किसी ने सुनी नहीं
न उस दिन ना आज
आयी थी वो तुम लोगों के पास
सुनाने अपनी कहानी
पर तुम लोगों ने भी मुँह मोड़ लिया
कहा उसी की गलती होगीकोई शायद
दुपट्टा नहीं पहना होगा
या मेकअप ज़्यादा करती होगी
अरे मर्द का तो स्वभाव ही ऐसा होता है
तू ही इशारे करती होगी
और बहाने भी तुम सोच लो
Poem Lawpanch 1.3
Poem Lawpanch 1.2
 
 
 
क्योंकि गलती तो उसी की होती है ना
अब गलती हुई है तो सज़ा भी बनती है
दे दी उसने ख़ुद को सज़ा
लिया वही दुपट्टा गले में डाल
लटका ली पंखे से अपनी जान
 
 

 

तुमने सोचा ख़बर तो अब बनती है
सुर्खियां छपी है अख़बार में
पढ़ डाली तुमने भी
कुछ दिग्गज गए थे TV पर
बताने अपनी सोच का हाल भी
चलना है ये नाटक कुछ पांच दस दिन
Poem Lawpanch 1.1

 

फिर क्या
बस यही क़ीमत होती है
हर लड़की की जान की

 

By- Deeshagiri

Justice is Everywhere…

By – Sherry George

Women in Labour

By – Sherry George